Next Story
Newszop

मूर्ति-पूजा भारत की प्राणशक्ति है!

Send Push

– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत की आत्मा को समझना हो तो मूर्ति-पूजा को समझना होगा। यह सिर्फ एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, है, सहस्राब्दियों से चली आ रही आध्यात्मिक परंपरा है, जिसने इस देश को हर संकट में खड़ा रहने का साहस दिया। हिंदू धर्म ने हमेशा यह स्वीकार किया है कि मनुष्य का मन निराकार का ध्यान नहीं कर सकता। उसे प्रतीक चाहिए, साकार रूप चाहिए, जिसमें वह अपनी भक्ति और श्रद्धा को केंद्रित कर सके। इसी कारण मूर्तियाँ केवल पत्थर या धातु की वस्तुएँ यहां कभी नहीं रहीं, ये सदैव से ही प्राण-प्रतिष्ठा के बाद जीवंत प्रतीक बन जाती हैं।

हिंदू भक्त जब मूर्ति के सामने खड़ा होता है तो उसे निर्जीव शिला नहीं, उसे उसमें अपनी आस्था का साक्षात स्वरूप दिखाई देता है। दर्शन मात्र से उसका मन स्थिर होता है, ऊर्जा मिलती है और आत्मा परिष्कृत होती है। यही कारण है कि मंदिर कभी सिर्फ धार्मिक स्थल नहीं रहे हैं, वह तो भारतीय समाज और संस्कृति के जीवंत केंद्र हैं। जब आक्रांता मंदिर तोड़ते थे, मूर्तियों के सिर तोड़ते थे, तो वे जानते थे कि वे भारत की आत्मा को चोट पहुँचा रहे हैं। उसके बाद भारत हर बार राख से उठ खड़ा हुआ, क्योंकि उसकी प्राणशक्ति इन मूर्तियों और मंदिरों में ही बसती है। इस्‍लाम और ईसाईयत की आंधी हर संभव प्रयास करके भी हिन्‍दुओं को समाप्‍त नहीं कर सकी, जबकि कई देशों के अनुभव हैं कि वे अपनी मूल संस्‍कृति को ढहा आए। इन देशों में अनेक ऐसे भी देश हैं, जिनकी वर्तमान पीढ़‍ी को पता ही नहीं कि उनकी जड़े कहां हैं! जबकि इन सब के बीच भारत अखण्‍ड, साश्‍वत खड़ा है।

इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी हर हिन्‍दू मानस को गहरी पीड़ा पहुंचा गई। मध्यप्रदेश के खजुराहो स्थित जावरी मंदिर में भगवान विष्णु की सात फुट लंबी प्रतिमा सदियों पहले मुगल आक्रमणों के दौरान खंडित कर दी गई थी। भक्त राकेश दालाल ने याचिका दायर कर इसकी बहाली की माँग की। उनका कहना था कि यह केवल पुरातत्व का मामला नहीं, बल्कि श्रद्धालुओं के पूजा-अधिकार से जुड़ा प्रश्न है। अब उसने क्‍या गलत कहा, जब एएसआई देश भर में कई मंदिरों की खण्‍डित मूर्तियों को उस मूर्ति स्‍वरूप के पत्‍थर के पाउडर से वैज्ञानिक उपचार कर उसके पुराने स्‍वरूप में उसे वापस ला सकती है, तब यहां यह प्रयोग क्‍यों नहीं हो सकता है? किंतु सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा, “अगर तुम भगवान विष्णु के इतने कट्टर भक्त हो तो जाओ, उनसे प्रार्थना करो।”

क्‍या यह टिप्पणी केवल एक वाक्य है, इसके वास्‍तविक निहितार्थ बहुत गहरे हैं, ये एक ऐसे नैरेटिव को जन्‍म देता है, जिसमें विष्‍णु के पास जाने का अर्थ या तो अपने भौतिक शरीर को त्‍याग देना है या फिर पूरी तरह आत्‍मा के प्रकाश में हरि भक्‍त‍ि में मौन हो जाना है, दोनों ही स्‍थ‍िति में व्‍यक्‍ति फिर कभी कोर्ट के समक्ष या किसी के सामने अपनी चिंताएं व्‍यक्‍त करने से परे हो जाता है। एक तरह से जो दिखाई देता है कि करोड़ों हिंदुओं की आस्था का उपहास हैं ये शब्द।

यथा; “अगर तुम्हारे देवता इतने ही सच्चे हैं तो खुद को बचा क्यों नहीं पाए?” ऐसा भी नहीं है कि ये स्‍वर समाप्‍त हो गए हैं, यही वाक्‍त या इससे मिलते जुलते शब्‍दों से सोशल मीडिया भरा पड़ा है, यानी कि देश में एक वर्ग ऐसा भी है जो हिन्‍दुओं की मूर्ति पूजा को अभी भी चुनौती दे रहा है। किंतु आज जब यही स्वर न्यायपालिका की भाषा में सुनाई दिया तो हिंदू समाज के लिए यह और गहरी चोट बन गया है।

सवाल यह उठता है कि अगर यही टिप्पणी किसी अन्य धर्म, मजहब, रीलिजन को लेकर कही जाती, तो क्या प्रतिक्रिया इतनी शांत रहती? वास्‍तव में यही असमानता और अन्याय आज ह‍िन्‍दुओं की सबसे बड़ी समस्या है, जो उन्‍हें बहुसंख्‍यक होते हुए भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर यातना स्‍वरूप दी जा रही है। अल्पसंख्यक जब अपमानित महसूस करते हैं तो वे सड़कों पर उतर आते हैं, नारेबाजी और हिंसा करते हैं। उनकी आक्रामकता को संवेदनशीलता और धार्मिक अधिकार के नाम पर न्‍यायालय भी अक्‍सर सहता हुआ दिखा है। यहां तक कि यदि आरोपितों के सार्वजनकि पोस्‍टर चस्‍पा कर दिए जाते हैं, तो न्‍यायालय स्‍वत: संज्ञान लेकर अपनी नाराजगी व्‍यक्‍त करता है, उन्‍हें तत्‍काल हटाने के लिए कहता है। इसके उलट हिंदू अपनी समस्याओं का समाधान संविधान और अदालतों में ढूँढ़ते हैं। किंतु यह क्‍या? अदालतों से उन्हें भी उपहास और तिरस्कार ही मिल रहा है! इससे बेहद खतरनाक संदेश सर्वत्र यही जाता है कि हिंसा का रास्ता परिणाम देता है और संयम का मार्ग उपेक्षा में बदल जाता है।

कहना होगा कि यह भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक संतुलन के लिए गंभीर चुनौती है। अदालतों का दायित्व सिर्फ कानून की व्याख्या करना ही नहीं है, उसके द्वारा नागरिकों की आस्थाओं का भी सम्मान किया जाना जरूरी है। यदि सुप्रीम कोर्ट को लगता था कि यह मामला पुरातत्व विभाग के दायरे में आता है, तो सीधे-सीधे कह सकती थी कि इसकी सुनवाई हम नहीं करेंगे, मामला पुरातत्‍व विभाग से जुड़ा है, किंतु यह कहा जाना कहां तक उचित है कि ‘भगवान विष्णु के इतने कट्टर भक्त हो तो जाओ, उनसे प्रार्थना करो।’

यहां न्‍यायालय में बैठे न्‍यायाधीशों को भी समझना आवश्यक है कि हिंदू मूर्ति-पूजा करता है तो वह कोई अंधविश्वासी नहीं। यह उसकी आत्मिक यात्रा का हिस्सा है। मूर्तियाँ उसे निराकार को साकार में देखने का अवसर देती हैं। वे उसके ध्यान, साधना और भक्ति का केंद्र बनती हैं। यही कारण है कि मंदिरों में भक्त घंटों कतार में खड़े रहते हैं, केवल अपने आराध्‍य (भगवान) की एक झलक पाने के लिए। दर्शन होते ही उन्हें लगता है कि जीवन धन्य हो गया। यह वह विश्वास, मनोवैज्ञानिकता और सांस्कृतिक शक्ति है, जिसने भारत को बार-बार टूटकर भी संभाला है।

मूर्ति-पूजा भारतीय सभ्यता की आत्मा है। इसे अंधविश्वास कहकर खारिज करना या अदालत से इसका उपहास करना न केवल करोड़ों भक्तों का अपमान है, बल्कि उस सांस्कृतिक धरोहर का अपमान है जिसने भारत को एकजुट रखा। खजुराहो की टूटी मूर्ति केवल एक प्रतिमा नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता के घावों की स्मृति है। उसकी बहाली केवल पुरातत्व का काम नहीं, बल्कि न्याय की माँग है।

—————

हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी

The post मूर्ति-पूजा भारत की प्राणशक्ति है! appeared first on cliQ India Hindi.

Loving Newspoint? Download the app now