शिमला से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित धामी गांव में हर साल की तरह इस बार भी 'पथरों का मेला' धूमधाम से मनाया गया। यह अनोखा उत्सव दिवाली के अगले दिन आयोजित होता है, जिसमें आसपास के क्षेत्रों से बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं।
इस मेले की विशेषता यह है कि इसमें दो गांवों, हालोग और जमोग, के युवक आमने-सामने खड़े होकर एक-दूसरे पर छोटे पत्थर फेंकते हैं। यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक किसी व्यक्ति के शरीर से खून नहीं निकलता। जैसे ही खून निकलता है, उस खून से मां काली के माथे पर तिलक किया जाता है।
स्थानीय लोगों का मानना है कि मेले में किसी के घायल होने को अशुभ नहीं बल्कि शुभ माना जाता है। इस बार 60 वर्षीय सुभाष, जो हाल ही में पुलिस विभाग से एसएचओ पद से रिटायर हुए हैं, पहले घायल हुए। उन्होंने कहा कि यह उनके लिए गर्व की बात है और वे इस परंपरा को आगे भी निभाते रहेंगे।
मेले की शुरुआत पूजा और संगीत से होती है। परंपरा के अनुसार, मेले की शुरुआत तब होती है जब नरसिंह देवता मंदिर के पुजारी, ढोल-नगाड़ों के साथ काली देवी मंदिर पहुंचते हैं। इसके बाद पत्थर फेंकने का सिलसिला शुरू होता है। इस प्रथा की शुरुआत लगभग 300 साल पहले मानी जाती है, जब इसे 'सती प्रथा' के विकल्प के रूप में शुरू किया गया था।
स्थानीय प्रशासन और मानवाधिकार संगठन इस परंपरा को रोकने की कोशिश करते रहे हैं, क्योंकि इसमें लोगों को चोट लगती है। फिर भी धामी के ग्रामीण अपनी मान्यताओं से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि यह सिर्फ एक मेला नहीं, बल्कि देवी मां के प्रति श्रद्धा और साहस का प्रतीक है। इस साल यह पत्थरबाजी करीब आधे घंटे चली, जबकि पिछले साल केवल 15 मिनट में समाप्त हो गई थी।
You may also like

बस्तर में 21 और नक्सलियों ने डाले हथियार, सबसे खतरनाक हिडमा-देवजी और संग्राम का क्या होगा?

Mulethi Health Benefits : खांसी-जुकाम हो या एसिडिटी, मुलेठी देगी झटपट राहत, जानें कैसे

बडगाम में ईवीएम का पूरक यादृच्छिकीकरण किया गयाः

उपायुक्त बारामुल्ला ने गुलमर्ग में सर्दियों की तैयारियों की समीक्षा

Chhath Puja : छठी मईया को क्यों कहते हैं देवसेना, जानें नाम और महत्व के पीछे की असली कहानी





