विजय दशमी 2025 केवल एक पर्व नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक अवसर है। इस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के शताब्दी वर्ष का जश्न मनाया जा रहा है। संघ का उद्देश्य केवल कुछ लक्ष्यों को प्राप्त करना नहीं है, बल्कि हिन्दू राष्ट्र की शक्ति को बढ़ाना है। जनसंघ के दार्शनिक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपने सिद्धांत 'एकात्म मानवतावाद' के माध्यम से सामाजिक समरसता को प्राथमिकता दी। भगवान श्रीराम, जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, इस समरसता के आदर्श प्रतीक हैं। उन्होंने समाज के सभी वर्गों को एकजुट किया और कभी भी सामाजिक मूल्यों का उल्लंघन नहीं किया। उनके जीवन से हमें यह सीखने को मिलता है कि कैसे समरसता को स्थापित किया जा सकता है।
समरसता की परिभाषा
समरसता का अर्थ समझने के लिए हमें इसकी व्याख्या करनी होगी। यह शब्द 'सम' और 'रस' से मिलकर बना है। रस का अर्थ है 'अनुभूति' या 'आनंद', जो किसी साहित्य या दृश्य को देखने के बाद मन में उत्पन्न होता है। संस्कृत में कहा गया है कि 'रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्', अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। इस प्रकार, समरसता का तात्पर्य है कि हम विभिन्न रसों को मिलाकर एकरस हो जाएं।
सामाजिक समरसता का महत्व
आज के समाज में सामाजिक समरसता पर चर्चा होती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी समान हो जाएं, बल्कि यह है कि हम उच्च मूल्यों को धारण करते हुए एकरस हों। कई लोग इसे गलत तरीके से समझते हैं और ऐसे मूल्यों को अपनाने का प्रयास करते हैं जो समाज में स्वीकार्य नहीं हैं। सामाजिक समरसता का अर्थ है कि हम सभी को एक साथ लाएं, न कि उनके स्तर पर आ जाएं। यही प्रगति है, और यही आदर्श भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने स्थापित किया।
भगवान श्रीराम का समरसता में योगदान
भगवान श्रीराम, जो ईश्वर के अवतार हैं, सभी रसों का स्रोत हैं। उन्होंने शबरी के जूठे बेर खाकर समरसता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके व्यवहार में राजा-प्रजा, ईश्वर-आत्मा, और उच्च-नीच का कोई भेद नहीं है। जब भी कोई उनके निकट आता है, वह अपने को उनसे अलग नहीं समझता। यही उनकी शक्ति है।
समरसता का उद्देश्य
समरसता की स्थापना का एक प्रमुख उद्देश्य ईश्वर का अवतार है। जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब भगवान स्वयं अवतार लेते हैं। यह संदेश हमें रामचरितमानस और श्रीमद्भगवत गीता में मिलता है। समरसता का सही अर्थ यही है कि हम सभी को एकरस बनाएं और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाएं।
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