किसी मां की बेटी उसकी आंखों के सामने त्योहारों की खुशियां सजाती थी, आज वही मां अपने आंगन में ‘दुर्गा-विहीन दुर्गा मंच’ बनाकर न्याय की गुहार लगा रही है। पश्चिम बंगाल के प्रतिष्ठित आरजी कर मेडिकल कॉलेज में एक युवा मेडिकल छात्रा की रेप और हत्या को एक साल से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन न्याय का दरवाज़ा आज भी उसके परिवार के लिए बंद नज़र आता है।
दुर्गा पूजा जैसे जश्न के माहौल में जब पूरा राज्य रौशनियों और भक्ति में डूबा है, उसी समय एक मां — जिसने अपनी बेटी को ‘घर की दुर्गा’ कहा — चुपचाप एक खाली मंच पर खड़ी होकर शपथ लेती है कि “न्याय छीनकर रहेंगे”।
रसूख और साज़िश के साये में दबता न्याय?
पीड़िता की मां का आरोप बेहद गंभीर है — “मेरी बेटी की बलि रसूखदारों ने दी है। जो आज भी त्योहार मना रहे हैं, जबकि मेरी दुर्गा आज इस आंगन में नहीं है।” उनकी बातों में सिर्फ पीड़ा नहीं, व्यवस्था के प्रति अविश्वास और गुस्से की गूंज भी सुनाई देती है। एक साल से ज्यादा वक्त बीतने के बाद भी न तो कोई ठोस परिणाम सामने आया है, न ही कोई स्पष्टता कि दोषियों तक कानून की पकड़ पहुँची है या नहीं।
CBI जांच की मांग तो उठी, लेकिन पीड़ित परिवार के मुताबिक अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। पीड़िता के पिता भी बार-बार जांच एजेंसियों की निष्क्रियता पर सवाल उठाते रहे हैं।
दुर्गा पूजा के बीच 'दुर्गा विहीन' मंच: एक मौन चीख
इस साल, पीड़िता के परिवार ने अपने घर के बाहर एक दुर्गा-विहीन मंच तैयार किया। मंच पर न तो देवी की मूर्ति थी, न कोई पूजा पंडाल का उत्साह। वहां सिर्फ एक तस्वीर थी — उस छात्रा की, जो अब नहीं है। साथ ही रखे गए थे उसके मेडिकल इंस्ट्रूमेंट्स, जैसे कि उसका सफेद कोट अब भी कह रहा हो — “मैं डॉक्टर बनने निकली थी, शिकार नहीं”।
‘वी वांट जस्टिस’ के नारों के साथ आसपास के लोग भी इस विरोध में शामिल हुए। यह एक सामूहिक पीड़ा बन चुकी है, जो सिर्फ एक मां-पिता की नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो न्याय व्यवस्था पर भरोसा करना चाहता है।
यह सिर्फ एक हत्या नहीं, व्यवस्था पर सवाल है
इस पूरे मामले में सबसे चिंताजनक बात यह है कि इतना समय बीत जाने के बावजूद न्याय की प्रक्रिया ठोस रूप नहीं ले सकी है। क्या यह इसलिए है क्योंकि मामला किसी प्रभावशाली व्यक्ति से जुड़ा है? क्या आम नागरिक की जान की कीमत रसूख के सामने शून्य होती जा रही है?
पीड़िता की मां का यह कहना कि “राक्षसों का वध तभी होगा, जब छोटी दुर्गाओं को सुरक्षित किया जाएगा”, आज सिर्फ एक भावनात्मक बयान नहीं, बल्कि सामाजिक चेतावनी बन चुका है।
लड़ाई अभी जारी है
पीड़ित परिवार का कहना है कि उनकी यह लड़ाई राजनीतिक नहीं है, यह न्याय की लड़ाई है, जिसे वे किसी भी कीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं हैं। उनके मुताबिक, यह असमान संघर्ष है — एक आम नागरिक बनाम व्यवस्था। लेकिन जिस तरह से स्थानीय लोग, डॉक्टरों के संगठन, सामाजिक मंच और कुछ राजनीतिक चेहरे भी इस मुद्दे के समर्थन में आ रहे हैं, उम्मीद की एक हल्की लौ अब भी टिमटिमा रही है।
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